किसानों का देश आज उसी किसान, मजदूर को उसी के देश मे प्रवासी मजदूर कह कर सम्बोधित कर रहा हैं, क्या यही नीव है एक नए भारत की, रस्सी की मजबूती उसके एक-एक धागों से है जो उसकों एक साथ बांध कर अपनी मजबूती बताती है ।
आज भारत अपने उन्ही किसानों और मजदूरों को उसके ही देश मे प्रवासी कह, एक मजबूत कड़ी को कही ना कहीं कमजोर कर रही हैं, शायद भारत की नींव ही इन्हीं किसानों और मजदूरों पर हैं भारत का कोई नागरिक एक वक्त का भोजन नही कर सकता अगर किसान खेतोँ को छोड़ दे, किसी भी चीजों का उत्पादन नही हो सकता कोई कल-कारख़ाना चल नही सकता अगर मजदूर अपने गाँव से शहर नहीं पहुँचे ।
दिल्ली, मुम्बई, बैंगलौर, हैदराबाद, पुणे, आदि स्थित मल्टीनेशनल कम्पनी में वाइट कॉलर जॉब करने वाले लोग मूल रूप से उस शहर के निवासी नही हैं, मुम्बई की मायानगरी यानी बॉलीबुड में काम करने वाले सभी कलाकार यहां तक की सभी टेक्निशियन भी मुंबई के मराठी नही हैं।
मीडिया में दिन-रात मजदूरों की परेशानी को उनके दुख-दर्द को संवेदनशील कंटेंट में डालकर कुछ तड़का मार कर कुछ छोका लगाकर कर बेचने वाले ज्यादातर मीडियाकर्मी भी दिल्ली एनसीआर के बाहर से यहां आ कर बसे हैं।
लेकिन कोई भी उन्हें प्रवासी इंजीनियर,या प्रवासी कलाकार, या प्रवासी मीडियाकर्मी नही कहता है, ना ही किसी लेख या न्यूज़ में उन्हें इस विशेष तमगे के साथ सम्बोधित करता हैं ।
फिर क्यों बिहार/झारखंड/उत्तरप्रदेश से मेहनत मजदूरी करने पंजाब या किसी महानगर में गए मेहनतकशमजदूरों को उसी के देश में प्रवासी कह कर हर दूसरे लेख में सम्बोधित क्यो किया जाता हैं !
क्या और कैसे कोई आदमी अपने ही देश मे प्रवासी हो जाता है, जबकि भारत का संविधान भी भारत मे कहीं भी रह कर कमाने और खानें की आजादी देता हैं ।
ऐसे में यह जरूरी होता है कि संपादक स्तर के लोग इस विषय पर गौर करें और प्रवासी मजदूर शब्द को हमेशा के लिए अपने शब्दकोश से निकल बाहर करें ।